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Faculty Development Workshop on BKS

Faculty Development Workshop on BKS

 Organised By  

SNDT Women’s University, Mumbai In Collaboration with 
Bhartiya Shikshan Mandal, Nagpur 

Sponsored by ICHR, New Delhi


Venue: Juhu Campus, SNDT WU, Mumbai

30th January - 04th February 2023

No. of Participants: 48

उ‌द्घाटन

एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय मुंबई के भारतीय ज्ञान, संस्कृत एवं योग केंद्र ने भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर, नई दिल्ली) एवं भारतीय शिक्षण मंडल, नागपुर के संयुक्त तत्वावधान में दिनांक 30 जनवरी से 4 फरवरी तक एक फैकेल्टी डेवलपमेंट कार्यशाला का आयोजन किया। इस कार्यशाला में 6 दिनों तक भारतीय ज्ञान परंपरा की प्रासंगिकता एवं भूमिका पर गहन चिंतन, मनन एवं विचार विमर्श किया गया।

कार्यक्रम का उ‌द्घाटन श्री मुकुल कानिटकर एवं प्रो. उज्वला चक्रदेव जी द्वारा दीप प्रज्वलन से हुआ। दीप प्रज्वलन के पश्चात संस्कृति विभाग की छात्राओं ने कुल गीत, स्वागत गीत एवं सरस्वती वंदना की प्रस्तुति की। उसके पश्चात प्रति-कुलपति डॉ. रूबी ओझा ने कार्यशाला में आमंत्रित अध्यापकों, शोधार्थियों एवं कार्यक्रम के संयोजकों का आभार प्रकट किया।

कार्यशाला का उ‌द्घाटन भाषण भारतीय शिक्षण मंडल के अखिल भारतीय संगठन मंत्री माननीय श्री मुकुल कानिटकर ने दिया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि फैकेल्टी डेवलपमेंट का अर्थ है कि हम अपने अंदर छिपी हुई रचनात्मक शक्तियों का उन्नयन करें तथा भारतीय ज्ञान परंपरा से उसको जोड़ें। भारतीय ज्ञान परंपरा सनातन है और वह व्यक्ति के सर्वांगीण विकास तथा सामूहिक विकास के लिए संकल्पित है। भारतीय ज्ञान परंपरा पुरातन नहीं है, यह सनातन है। यदि हमारी संस्कृति बची है, तो वह व्यवहार और व्यसन के कारण। परंपरा व्यवहार से ही आती है। जो खो गया है, उसे हम खोज सकते हैं। ज्ञान परंपरा का सार तत्व खोजा जा सकता है, और उसी को पुनः खोजना है। यह खोज भविष्य उन्मुख होनी चाहिए, पर वर्तमान को छोड़कर नहीं। अपने व्याख्यान में मुकुल जी ने बताया कि भारतीय ज्ञान परंपरा एक शिक्षण पद्धति है। अध्यापक का अर्थ है- सीखना, प्रारंभ करना। उस अध्ययन में चिरंतरता एवं निरंतरता बनी रहनी चाहिए। हम आज क्या हो गए हैं और भविष्य में क्या होंगे, इस पर मुकुल जी ने टिप्पणी की कि व्यस्त केवल वर्तमान में होते हैं, भूत और भविष्य में अस्त व्यस्त होते हैं। शिक्षा में भारतीय परंपरा को कैसे अपनाया जाए इस पर मुकुल जी ने कुछ बातों पर रोशनी डाली कि पहले अपनी परम्परा को पहचाना जाय, फिर उसके बाद उसके आयोजन की योजना बनाई जाय और फिर नए सिद्धांत गढ़े जाएं। इस प्रकार इन तीनों बिंदुओं को प्रकाशित करते हुए मुकुल जी ने अपनी वाणी को विराम दिया। अंत में उ‌द्घाटन सत्र एवम प्रथम सत्र की औपचारिक समाप्ति की घोषणा की गई।

एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय की कुलगुरु प्रोफेसर उज्वला चक्रदेव ने उ‌द्घाटन के अवसर पर कहा कि देश की यह सनातन ज्ञान परंपरा भारत ही नहीं वरन विश्व तक फैली हुई है। संपूर्ण विश्व अपने आध्यात्मिक, बौ‌द्धिक, नैतिक तथा चारित्रिक ज्ञान के लिए भारत की ओर ही मुंह उठाकर देखता है, इसलिए हमें अपनी सनातन ज्ञान परंपरा को समुचित रूप में समझना होगा और उसे आगे बढ़ाना होगा। समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर आशीष पांडे के कहा कि हम अपने-अपने विषयों के क्षेत्र में भारतीय ज्ञान परंपरा से जुड़ें और अपने ज्ञान का विस्तार करें। भारतीय ज्ञान केंद्र के मानद निदेशक डॉ. जितेंद्र तिवारी ने इस अवसर पर सब सभी अतिथियों का स्वागत किया तथा इस छह दिवसीय फैकल्टी डेवलपमेंट कार्यशाला का उद्देश्य बताया।

कार्यशाला, गतिविधियां एवं विभिन्न चर्चा सत्र

पहले दिन के तृतीय सत्र में प्रो. गौरी माहुलिकर ने बताया कि भारतीय ज्ञान परंपरा को हमें अपने शिक्षण में किस तरह शामिल करना है। इस ज्ञान का संबंध एक अनुशासन से नहीं है बल्कि कई से है। इसे आधुनिक क्रिटिकल सोच से सोचने समझने की जरूरत है। इस अपार खजाने को हम कैसे अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए उपयोग कर सकते हैं- आज इस तथ्य को समझने की आवश्यकता है।

दूसरे दिन, मंगलवार को प्रथम सत्र में रंग-विशेषज्ञ एवं कवि श्री भारतेन्दु मिश्र ने "भारतीय सौन्दर्य शास्त्र-६४ ललित कलाएं" विषय पर अपना विद्वत्ता पूर्ण व्याख्यान प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने सभी कलाओं के सहायक आधार तत्व के रूप में रस की परिकल्पना रखी। कला का अर्थ व उपयोगिता एवं कला के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रचार एवं प्रभाव किस तरह फैला, यह समझाने के बाद रोचक पी.पी.टी. (PPT) के माध्यम से उन्होंने मुख्य सात ललित कलाओं से विस्तृत परिचय करवाया। अभिनयकला (नाट्य), संगीत कला, काव्यकला, नृत्य कला, चित्र कला, शिल्प कला एवं स्थापत्य कला। इन मुख्य ७ कलाओं का प्रादुर्भाव कैसे हुआ, उनका जनमानस पर प्रभाव एवं भारतीय सनातन धर्म, संस्कृति का गौरव किस प्रकार से कलाओं के माध्यम से हुआ उसकी विशेष झांकी प्रस्तुत की।

श्री आशीष देसाई ने बताया की खोज आविष्कार से भिन्न कैसे है? भारतीय स्त्रियों पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति एवं इतिहास में स्त्रियों के पास हमेशा अपनी बात कहने की शक्ति रही और उन्होंने अपने विकल्प भी खुले रखे। समय आने पर उन्होंने अपनी बात सबके सामने रखी भी। उन्होंने विभिन्न सरकारी योजनाओं का हवाला देते हुए कहा कि भारत सरकार स्त्रियों के सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्धता से कार्य कर रही है। हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम सरकार के इस कार्य में अपना सहयोग करें।

श्री हार्दिक भट्ट ने भारतीय संगीत पर बात करते हुए बताया कि हमारे देश में संगीत कला की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा है, जो हमारे जीवन का अंग रही है। भारतीय संगीत में मानव जीवन, उसकी संस्कृति व मूल्यों का समावेश रहा है। किन्तु हमारे यहाँ संगीत की धरोहर को ठीक से संभाला नहीं गया है। उन्होंने कहा कि भारतीय सिने संगीत का भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा है, किन्तु उसे शास्त्रीय संगीत की तुलना में हेय समझा जाता है।

प्रो. वी बापट ने पाश्चात्य और भारतीय अर्थशास्त्र को तुलनात्मक रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने अर्थशास्त्र की पूंजीवादी तथा मार्क्सवादी अवधारणाओं को प्रस्तुत किया। उन्होंने चाणक्य के उदाहरण से बताया कि उसने लोक के कल्याण, प्रजा के हित तथा धन की व्यवस्था के विषय में स्पष्ट व्यवस्था प्रस्तुत की है। उन्होंने इस परंपरा में डॉ. अंबेडकर, महात्मा गांधी तथा दीनदयाल उपाध्याय के उदाहरण से समझाया कि देश में आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का निर्माण कैसे किया जाए।

वर्कशॉप के तीसरे दिन हिंदुस्तानी प्रचार सभा के निदेशक श्री संजीव निगम ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बात करते हुए उसे अत्यंत सराहनीय प्रयास माना। उन्होंने भारत की ज्ञान परंपरा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारत की ज्ञान परंपरा सागर की तरह है और वर्तमान समय में नई शिक्षा नीति के तहत शिक्षा को भारतीय ज्ञान परंपरा से जोड़ने के लिए, उसकी जानकारी के लिए शिक्षक को अथक परिश्रम करने की आवश्यकता है, क्योंकि किसी भी देश व समाज के विकास में शिक्षक व शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। संजीव जी ने कहा कि हमने विदेशियों के अनुवाद को सही मानकर, उसका अनुगमन कर, अपने इतिहास को विकृत कर दिया है। इसे सही दिशा व दशा में लाने के लिए वर्तमान विषय को भारतीय ज्ञान परंपरा से जोड़कर आगे बढ़ाना होगा और इसके लिए भारतीय ज्ञान परंपरा का बेसिक ज्ञान हासिल करने की आवश्यकता है जो अथक परिश्रम से संभव हो सकता है।

प्रो. रूबी ओझा ने वर्तमान समय में भारतीय अर्थ व्यवस्था की विशेषताओं से हमें परिचित कराया। भारतीय सभ्यता ने विशाल संपत्ति का निर्माण किया था, जो विश्व की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था थी। उन्होंने बताया कि 2047 तक आते आते भारत विश्व की सर्वश्रेष्ठ अर्थव्यवस्था बन जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि भारत सरकार नई नौकरियों के सृजन, स्टार्ट अप योजनाओं, आयुष्मान भारत जैसी स्वास्थ्य योजनाओं व राष्ट्रीय स्वास्थ्य उत्पादन की सफलता के लिए भी बहुत कोशिश कर रही है।

भारतीय विद्या भवन दिल्ली की डीन प्रो. शशिबाला ने विश्व गुरु भारत की अवधारणा पर अत्यंत महत्वपूर्ण एवं उपयोगी व्याख्यान दिया। उन्होंने बताया कि प्रारंभ से ही भारत की परोपकार की उदात्त भावना किस प्रकार अर्थतंत्र, बाज़ार, कला, व्यापार इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में भारत को बाकी देशों से अलग कर उच्च शिखर पर स्थापित करती है। अन्य देशों की भावना और नीति दूसरों का दमन करने की एवं मात्र अपना विकास करने की रही है, जबकि उससे विपरीत भारत की भावना हमेशा से ही सब को साथ लेकर चलने की, बन्धुत्व की, मित्रता की रही है।

सोफिया विश्ववि‌द्यालय, अमेरिका के प्रो. कुंदन सिंह ने भारतीय ज्ञान परंपरा पर गहन विमर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने हमारे गौरवशाली अतीत को सबको बताने की आवश्यकता और मानवता के लिए उसकी विश्व दृष्टि का प्रसार करने की बात कही। उन्होंने कहा कि वेदों और पुराणों का हमारे जीवन में अति महत्व है, जिनके बिना हमारा प्राणमय कोश मानवता के लिए शून्य हो जाता है। प्राणमय कोश की कमी से अहंकार और क्रोध का जन्म होता है, जो मनुष्य के लिए मोक्ष के रास्ते बंद कर देता है।

प्रो. उज्वला चक्रदेव, कुलगुरु ने कहा कि वास्तु समाज का आइना है। जिस समाज में जिस तरह कि जरूरत होती है, वहाँ उस तरह की रचना बनती है। मोहेंजोदारो जैसी सभ्यता में कौन्सिल हॉल थे। तीन हजार साल पहले कौन्सिल हॉल था। यह उनके गव्हर्नन्स के लिये होगा। इसलिये कौंसिल हॉल नाम दिया। वहां के स्ट्रक्चर ईंटों से बने थे। उससे उनका वैज्ञानिक ज्ञान पता चलता है। वास्तुशास्त्र इतिहास की खुली किताब है। उसकी भाषा मालूम होनी चाहिये, उसे पढ़ने की ज़रूरत है। हड़प्पा और मोहेंजोदारों में सार्वजनिक स्नानागार थे, जल निकासी की व्यवस्था थी। इसी तरह रानी की वाव में जल प्रबंधन की उत्तम व्यवस्था थी। उन्होंने बताया कि मंदिर एक जीवित वास्तु है। पूरा समाज उससे जुड़ा होता है।

डॉ. अजिंक्य नवरे ने कर्मयोग एवं पॉजिटिव मनोविज्ञान पर बोलते हुए कहा कि हमें अपने कार्य में रुचि बनाए रखने के लिए सकारात्मकता को बनाए रखना चाहिए। हमें अपनी व्यक्तिगत मानसिक शक्तियों को केंद्र में रखते हुए अपने अध्ययन अध्यापन को आधार बनाना चाहिए।

डॉ. देवीश्री सिद्धेश ने आयुर्वेद पर बोलते हुए कहा कि आयुर्वेद रक्षात्मक व चिकित्सकीय विकल्पों पर कार्य करता है। उन्होंने बताया कि आधुनिक शोधों के अनुसार विज्ञान की भाषा में वैदिक ज्ञान और आयुर्वेद को समझने की कोशिश की जा रही है।

चौथे दिन के प्रथम सत्र में व्याख्यान के लिए प्रो. रामराज उपाध्याय को निमंत्रित किया गया। उनका विषय था- "वैदिक गुरु शिष्य परंपरा और कल्याण"। इसी विषय को आगे बढाते हुए आमंत्रित व्याख्याता ने बताया कि उस काल में अध्ययन अध्यापन का एकमात्र साधन श्रुति परंपरा थी, यही पहली परंपरा थी और उसी को श्रुति कहा जाता है। शिष्य परंपरा में सबसे पहले ब्रहमा जी ने श्रुति परंपरा को निभाते हुए वशिष्ठजी को यह ज्ञान दिया और वशिष्ठजी ने फिर शक्ति को ज्ञान दिया और शक्ति ने पाराशर को और पाराशर ने व्यासजी को ज्ञान दिया। इस परंपरा का वर्तमान समय में भी अस्तित्व बना रहे उसके लिए उज्जैन में राष्ट्रीय वेद विद्या संस्थान में इस परंपरा को विकसित किया जा रहा है।

प्रो. के. के. पाण्डेय ने अपने व्याख्यान में बताया कि ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है।

ज्योतिष में निरीक्षण, परीक्षण, संशोधन और प्रयोग महत्वपूर्ण हैं। ज्योतिष में गणना के आधार पर ही भविष्यवाणी की जाती है। हमारे ज्ञान का उद्देश्य पुरुषार्थ करना है। हमारी संस्कृति पुरुषार्थ चतुष्टय- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पोषक रही है, शोषण की नहीं। वह मौन नहीं रही है, जितना सुनेंगे उतना समझेंगे। ज्योतिष के अनुसार धर्म, अर्थ, काम ये तीनों मिलकर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं और इन तीनों के करने से मोक्ष अपने आप मिल जाता है।

तत्पश्चात भोपाल से आए विद्वान मनोज कुमार श्रीवास्तव ने अपने व्याख्यान का विषय रामायण और महाभारत में मूल्यों पर केंद्रित किया। उनका कहना था कि अयोध्या राजपरिवार की प्रथम स्त्री सीता और हस्तिनापुर की प्रथम स्त्री द्रौपदी के साथ हुए अपमानजनक व्यवहार को हम समान रूप से नहीं मान सकते। जहाँ सीता एक व्यक्ति के द्वारा अपमानित हुई, वहीं उसके विपरीत द्रौपदी को समाज ने, उसके स्वाभिमान को प्रताड़ित किया था। जिस सभा में द्रौपदी को लाया गया था, वह राजसभा थी, जहाँ समाज का प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति अपने अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा था। उस सभा में सभी आदरणीय सदस्यों जैसे भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, गुरु कृपाचार्य, मंत्री व दूसरे महाराजाओं का मौन रह जाना एक प्रश्न तो खड़ा करता है कि राजकुल की वधू के अपमान को वे बलपूर्वक एवं शक्तिपूर्वक नहीं रोक पाए। क्या कारण था?

आईआईटी मुंबई के प्रो. आशीष पाण्डेय ने कहा कि हमारे शैक्षिक लक्ष्य जीवन की वास्तविक समस्याओं को केंद्र में रखते हुए निर्धारित करने होंगे। हमें जीवन की वास्तविक समस्याएं शोध समस्याओं में परिवर्तित करनी होंगी और हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय पर आधारित भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुसार उनके समाधान निकालने होंगे। उन्होंने विभिन्न गतिविधियों द्वारा कक्षाओं में भारतीय ज्ञान परंपरा को स्थापित करने की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला।

यह कार्यशाला विश्ववि‌द्यालय तथा महाविद्यालयों के अध्यापकों के लिए आयोजित की गई थी, जिसमें 48 शोधार्थियों, अध्यापकों तथा विद्वानों ने सक्रिय रूप से सहभागिता की। 6 दिन तक चलने वाली इस कार्यशाला में प्रतिदिन 10:00 बजे से सायं 5:00 बजे तक 4 अलग-अलग विद्वानों के व्याख्यान हुए, जिनमें भारतीय ज्ञान परंपरा को केंद्र में रखते हुए विज्ञान, तकनीकी, रिसर्च, भारतीय सौंदर्यशास्त्र, नारी सशक्तिकरण, भारतीय संगीत, भारतीय अर्थव्यवस्था, शिक्षा, मिथक, वास्तुशास्त्र, भारतीय मनोविज्ञान, वैदिक साहित्य, कर्म योग, आयुर्वेदिक शिक्षा, भारतीय ज्योतिष, विज्ञान एवं गणित, भारतीय भाषाएं, रामायण एवं महाभारत में मूल्य तथा अन्य महत्वपूर्ण विषय शामिल हुए। इन विद्वानों में प्रमुख थे प्रोफेसर गौरी माहुलीकर केरल से, डॉ. भारतेंदु मिश्र, श्री आशीष देसाई, प्रोफेसर रामराज उपाध्याय, डॉ. शशिबाला आदि दिल्ली से, प्रो. वरदराज बापट, डॉ आशीष पांडे आईआईटी मुंबई से, प्रो. उज्वला चक्रदेव, प्रो. रूबी ओझा, डॉ. अजिंक्य नवरे, डॉ. देवश्री फाटक मुंबई से, प्रो. कुंदन सिंह, सोफिया विश्वविद्यालय कैलिफोर्निया, अमेरिका से, श्री मनोज कुमार श्रीवास्तव भोपाल से एवं प्रो. के. के. पांडेय नागपुर से। 6 दिन की इस कार्यशाला में मुंबई, नासिक, पुणे, थाणे आदि शहरों से 48 अध्यापकों एवं शोधार्थियों ने प्रतिभागिता की एवं अपनी सक्रिय सहभागिता से कार्यशाला को न सिर्फ जीवंत बनाए रखा, बल्कि अपने प्रश्नों एवं विमर्श से सार्थक चर्चा भी की। 

समापन सत्र

समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय की प्र-कुलगुरु प्रो. रूबी ओझा ने कहा कि कार्यशाला का उद्देश्य फलीभूत हुआ है। अब अध्यापकों ने अपने- अपने विषयों से भारतीय ज्ञान परंपरा को जोड़कर सोचना प्रारंभ किया है। अब इस दिशा में शोध की बहुत सी धाराएं खुल रही हैं, जिन पर कार्य करने की आवश्यकता है। समापन सत्र के मुख्य अतिथि आईआईटी मुंबई के प्रोफेसर डॉ. आशीष पांडेय ने सभी प्रतिभागियों के साथ मिलकर शोध से संबंधित नए विचार प्रस्तुत किए तथा सबका मार्गदर्शन किया।

भारतीय ज्ञान केंद्र की संयोजिका डॉ. वत्सला शुक्ला ने कार्यशाला की रिपोर्ट प्रस्तुत की और ऐसे महत्वपूर्ण विषयों की बात की जिन पर गहन चर्चा हुई। इस सत्र की विशिष्ट अतिथि एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय की अधिष्ठाता मानविकी संकाय प्रोफेसर मेधा तापीआवाला ने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा के विषय में यह शुरुआत हुई है, अब हमें इस परंपरा को अपने-अपने क्षेत्रों में अध्यापन के केंद्र में लाना होगा, जिससे हम इस दिशा में सार्थक उपलब्धि प्राप्त कर सकें। भारतीय ज्ञान केंद्र के मानद निदेशक डॉ. जितेंद्र कुमार तिवारी ने इस कार्यशाला में आए हुए सभी प्रतिभागियों तथा विद्वानों का आभार ज्ञापित किया तथा इस प्रकार के कार्यक्रमों को आगे भी करने का संकल्प किया।

इस कार्यशाला के संयोजक थे डॉ. रवींद्र कात्यायन। उन्होंने कहा कि यह कार्यशाला भारतीय ज्ञान परंपरा की दिशा को समझने में एक मील का पत्थर है और इसकी प्रासंगिकता अब और बढ़ जाती है, क्योंकि पश्चिम ज्ञान की प्राप्ति के लिए हमारी तरफ देख रहा है। अब हमें यहां नहीं रुकना है, आगे बढ़ते जाना है।